वास्तु शास्त्र व् भवन निर्माण
वास्तु शास्त्र
आदिकाल से ही प्राचीन भारत मैं व हिंदू व जैन धर्म ग्रंथो मैं दिशाओं, वायु प्रवाह, चुंबकीय प्रवाह, सोर ऊर्जा व गुरुत्वाकर्षण के नियमो को ध्यान मैं रखते हुवे वास्तु शास्त्र की रचना की गयी, भवन निर्माण मैं इन सभी तथ्यों को ध्यान मैं रख कर कर यदि भवन निर्माण किया जाए तो मनुष्य के जीवन मैं सुख शांति व समरद्धि आती है ।
वास्तु वस्तुतः प्रथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि इन पाँच तत्वों के समुचित और समनुपातिक योग का विज्ञान है । मानव शरीर इन्ही पंच तत्वों से निर्मित होता है, और अन्ततः इन्ही पंचतत्वो मैं विलीन हो जाता है । हमारी जीवन ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत सूर्य है, सूर्य के प्रकाश मैं सभी रोगों को नस्ट करने की क्षमता है, सूर्य पूर्व मैं उदित हो कर पस्चिम मैं अस्त होता है, इसलिए भवन निर्माण मैं दिशाओं का महतवपूर्ण स्थान है ।
भवन निर्माण मैं सूर्य ऊर्जा, वायु ऊर्जा, जल ऊर्जा व चंद्र ऊर्जा का प्रथ्वी पर प्रमुख प्रभाव माना जाता है ।
वास्तु शास्त्र मैं यही बताया है की प्राक्रतिक संस्साधनो का समुचित उपयोग कर भवन निर्माण किया जाए, सूर्य का प्रकाश पूरे भवन मैं समुचित रूप से आए, और orientation इस तरह रखा जाए की प्रातः काल मैं सूर्य की किरणे अधिक मिले, दोपहर मैं कम । इसके पीछे वेज्ञानिक तथ्य है की प्रातःकी धूप से पर्याप्त मात्रा मैं विटामिन D प्राप्त हो सके, व मध्नायह की धूप रेडीओ धर्मिता से ग्रस्त होने के कारण शरीर पर बुरा प्रभाव डालती है । इसलिए दक्षिण पस्चिम भाग के अनुपात मैं भवन निर्माण के समय पूर्व एवं उत्तर के अनुपात को नीचा रखा जाता है ।
पूर्व एवं उत्तर क्षेत्र अधिक खुला होने से वायु बिना रुकावट के भवन मैं प्रवेश कर सके और चुंबकीय क्षेत्र जो उत्तर दक्षिण की और होता है उस मैं कोई रुकावट न आए । दक्षिण एवं पस्चिम दिशा मैं भवन को अधिक ऊँचा रखना या सीढ़ी बनाना या मोटी दीवारें बनाना, भारी सामान रखना या स्टोर बनाने का मुख्य कारण यह है की, जब प्रथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिण दिशा मैं करती है तो वह एक विशेष कोणिय स्थिति मैं होती है, इस क्षेत्र मैं अधिक भार रखने से संतुलन आ जाता है व दोपहर के बाद के सूर्य के ताप से बचा भी जा सकता है । दक्षिण पूर्व मैं रसोई घर बनाने का मुख्य कारण यह है की प्रथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणयान मैं करती है, पूर्व से सूर्य की किरणे दक्षिण क्षेत्र की वायु के साथ प्रवेश करती है तो इस दिशा मैं अधिक सूर्य किरणे रहने से खाध्य पदार्थ अधिक शुद्ध रहेंगे व रसोई घर मैं नमी नहीं रहेगी.
उत्तर पूर्व दिशा ईशान कोण मैं पूजा स्थल रखने का मुख्य कारण यह है की एक तो प्रातः क़ालीन सूर्य की किरणे शरीर को प्राप्त होगी व इस क्षेत्र मैं चुंबकीय ऊर्जा का प्रभाव भी मिलेगा ।
इसी कारण इस दिशा मैं पानी के स्तोतो को रखा जाता है ।
दक्षिण दिशा मैं सिर रख कर सोने पर प्रथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का मनुष्य पर पड़ने वाला प्रभाव ही है, चुंबकीय तरंगे उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की तरफ़ चलती है, इसी प्रकार मनुष्य के शरीर का gravitational force बाई सिर से पेर की तरफ़ होता है, यदि सिर को उत्तर दिशा मैं रखेंगे तो चुंबकीय क्षेत्र प्रभाव नहीं डालेगा, प्रथ्वी का उत्तरी चुंबकीय ध्रुव मनुष्य के उत्तरी पोल से repulsion करेगा और चुंबकीय प्रभाव से प्रतिक्रिया करेगा जिससे शरीर के लिए अनुकूल चुंबकीय क्षेत्र का लाभ नहीं मिलेगा, जिससे शांत नींद नहीं आएगी । दक्षिण दिशा मैं सिर रख कर सोने से चुंबकीय सर्किट पूरा होगा और अच्छी नींद आएगी ।
भवन निर्माण मैं चारों और खुला स्थान अवश्य रखे, खुला स्थान पूर्व व उत्तर दिशा मैं अधिक व उससे कम दक्षिण मैं व सबसे कम पस्चिम मैं रखे, इससे सभी दिशाओं मैं वायु का प्रवाह बना रहेगा । वास्तु शास्त्र मैं यूँ तो कई नियम है फिर भी 150 के क़रीब ऐसे नियम है जिन्हें सामान्य तोर पर लागू किया जा सकता है । भूखंड की स्थिति, दिशा निर्धारण, विशेष कोण, सभी पहलुओं की जानकारी के बाद ही भवन निर्माण, ओधोगिक भवन, व्यापारिक संस्थान आदि का निर्माण करे ।
आदिकाल से ही प्राचीन भारत मैं व हिंदू व जैन धर्म ग्रंथो मैं दिशाओं, वायु प्रवाह, चुंबकीय प्रवाह, सोर ऊर्जा व गुरुत्वाकर्षण के नियमो को ध्यान मैं रखते हुवे वास्तु शास्त्र की रचना की गयी, भवन निर्माण मैं इन सभी तथ्यों को ध्यान मैं रख कर कर यदि भवन निर्माण किया जाए तो मनुष्य के जीवन मैं सुख शांति व समरद्धि आती है ।
वास्तु वस्तुतः प्रथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि इन पाँच तत्वों के समुचित और समनुपातिक योग का विज्ञान है । मानव शरीर इन्ही पंच तत्वों से निर्मित होता है, और अन्ततः इन्ही पंचतत्वो मैं विलीन हो जाता है । हमारी जीवन ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत सूर्य है, सूर्य के प्रकाश मैं सभी रोगों को नस्ट करने की क्षमता है, सूर्य पूर्व मैं उदित हो कर पस्चिम मैं अस्त होता है, इसलिए भवन निर्माण मैं दिशाओं का महतवपूर्ण स्थान है ।
भवन निर्माण मैं सूर्य ऊर्जा, वायु ऊर्जा, जल ऊर्जा व चंद्र ऊर्जा का प्रथ्वी पर प्रमुख प्रभाव माना जाता है ।
वास्तु शास्त्र मैं यही बताया है की प्राक्रतिक संस्साधनो का समुचित उपयोग कर भवन निर्माण किया जाए, सूर्य का प्रकाश पूरे भवन मैं समुचित रूप से आए, और orientation इस तरह रखा जाए की प्रातः काल मैं सूर्य की किरणे अधिक मिले, दोपहर मैं कम । इसके पीछे वेज्ञानिक तथ्य है की प्रातःकी धूप से पर्याप्त मात्रा मैं विटामिन D प्राप्त हो सके, व मध्नायह की धूप रेडीओ धर्मिता से ग्रस्त होने के कारण शरीर पर बुरा प्रभाव डालती है । इसलिए दक्षिण पस्चिम भाग के अनुपात मैं भवन निर्माण के समय पूर्व एवं उत्तर के अनुपात को नीचा रखा जाता है ।
पूर्व एवं उत्तर क्षेत्र अधिक खुला होने से वायु बिना रुकावट के भवन मैं प्रवेश कर सके और चुंबकीय क्षेत्र जो उत्तर दक्षिण की और होता है उस मैं कोई रुकावट न आए । दक्षिण एवं पस्चिम दिशा मैं भवन को अधिक ऊँचा रखना या सीढ़ी बनाना या मोटी दीवारें बनाना, भारी सामान रखना या स्टोर बनाने का मुख्य कारण यह है की, जब प्रथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिण दिशा मैं करती है तो वह एक विशेष कोणिय स्थिति मैं होती है, इस क्षेत्र मैं अधिक भार रखने से संतुलन आ जाता है व दोपहर के बाद के सूर्य के ताप से बचा भी जा सकता है । दक्षिण पूर्व मैं रसोई घर बनाने का मुख्य कारण यह है की प्रथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणयान मैं करती है, पूर्व से सूर्य की किरणे दक्षिण क्षेत्र की वायु के साथ प्रवेश करती है तो इस दिशा मैं अधिक सूर्य किरणे रहने से खाध्य पदार्थ अधिक शुद्ध रहेंगे व रसोई घर मैं नमी नहीं रहेगी.
उत्तर पूर्व दिशा ईशान कोण मैं पूजा स्थल रखने का मुख्य कारण यह है की एक तो प्रातः क़ालीन सूर्य की किरणे शरीर को प्राप्त होगी व इस क्षेत्र मैं चुंबकीय ऊर्जा का प्रभाव भी मिलेगा ।
इसी कारण इस दिशा मैं पानी के स्तोतो को रखा जाता है ।
इसी कारण इस दिशा मैं पानी के स्तोतो को रखा जाता है ।
दक्षिण दिशा मैं सिर रख कर सोने पर प्रथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का मनुष्य पर पड़ने वाला प्रभाव ही है, चुंबकीय तरंगे उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की तरफ़ चलती है, इसी प्रकार मनुष्य के शरीर का gravitational force बाई सिर से पेर की तरफ़ होता है, यदि सिर को उत्तर दिशा मैं रखेंगे तो चुंबकीय क्षेत्र प्रभाव नहीं डालेगा, प्रथ्वी का उत्तरी चुंबकीय ध्रुव मनुष्य के उत्तरी पोल से repulsion करेगा और चुंबकीय प्रभाव से प्रतिक्रिया करेगा जिससे शरीर के लिए अनुकूल चुंबकीय क्षेत्र का लाभ नहीं मिलेगा, जिससे शांत नींद नहीं आएगी । दक्षिण दिशा मैं सिर रख कर सोने से चुंबकीय सर्किट पूरा होगा और अच्छी नींद आएगी ।
भवन निर्माण मैं चारों और खुला स्थान अवश्य रखे, खुला स्थान पूर्व व उत्तर दिशा मैं अधिक व उससे कम दक्षिण मैं व सबसे कम पस्चिम मैं रखे, इससे सभी दिशाओं मैं वायु का प्रवाह बना रहेगा । वास्तु शास्त्र मैं यूँ तो कई नियम है फिर भी 150 के क़रीब ऐसे नियम है जिन्हें सामान्य तोर पर लागू किया जा सकता है । भूखंड की स्थिति, दिशा निर्धारण, विशेष कोण, सभी पहलुओं की जानकारी के बाद ही भवन निर्माण, ओधोगिक भवन, व्यापारिक संस्थान आदि का निर्माण करे ।
Thanks for sharing this article here about the House Vastu. Your article is very informative and useful. Keep sharing these types of articles here.
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